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स॒निर्मि॒त्रस्य॑ पप्रथ॒ इन्द्र॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ । प्राची॒ वाशी॑व सुन्व॒ते मिमी॑त॒ इत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sanir mitrasya papratha indraḥ somasya pītaye | prācī vāśīva sunvate mimīta it ||

पद पाठ

स॒निः । मि॒त्रस्य॑ । प॒प्र॒थे॒ । इन्द्रः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ । प्राची॑ । वाशी॑ऽइव । सु॒न्व॒ते । मिमी॑ते । इत् ॥ ८.१२.१२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:12 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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शिव शंकर शर्मा

उसकी कृपा दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सोमस्य) निखिल पदार्थ के ऊपर (पीतये) अनुग्रहदृष्टि से अवलोकन के लिये (इन्द्रः) वह परमात्मा (पप्रथे) सर्वव्यापी हो रहा है। वह कैसा है (मित्रस्य+सनिः) मित्रभूत जीवात्मा को सब प्रकार दान देनेवाला है। पुनः (सुन्वते) शुभ कर्म करनेवाले के लिये (प्राची) सुमधुरा (वाशी+इव) वाणी के समान सहायक है। सो वह इन्द्र (मिमीते+इत्) भक्तजनों के लिये कल्याण का निर्माण करता ही रहता है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - सर्व पदार्थ के ऊपर अधिकार रखने के लिये परमात्मा सर्वव्यापक है और मधुर वाणी के समान वह सबका सहायक है ॥१२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रस्य) स्नेहकर्त्ता को (सनिः) इष्ट पदार्थों का देनेवाला (इन्द्रः) परमात्मा (सोमस्य, पीतये) सौम्यगुणों का अनुभव करने के लिये (पप्रथे) आविर्भूत होता है (सुन्वते) जिस प्रकार यज्ञकर्ता के लिये (प्राची वाशीव) पुरातन वेदविद्या आविर्भूत होती है और (मिमीते, इत्) वह वेदविद्या ईश्वर का प्रकाश करती है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष परमात्मा को स्नेहदृष्टि से देखते अर्थात् वेदविहित नियमों का पालन करते हैं, उन्हें परमात्मा इष्ट पदार्थों द्वारा सौम्यगुणसम्पन्न करके सुखी करते हैं, या यों कहो कि उनको वह ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिससे वे सब दुर्गुणों को त्यागकर सर्वदा सद्गुणों का सेवन करते हुए सुख भोगते हैं ॥१२॥
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शिव शंकर शर्मा

तदीयकृपां दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - सोमस्य=निखिलपदार्थस्य। पीतये=अनुग्रहदृष्ट्यावलोकनाय। इन्द्रः=ईश्वरः। पप्रथे=प्रथितो विस्तीर्णः सर्वव्यापी वर्तते। कीदृग् इन्द्रः। मित्रस्य=मित्रभूतस्य जीवस्य। सनिः=दाता। पुनः। सुन्वते=शुभकर्माणि कुर्वते जनाय। प्राची=प्राञ्चन्ती सुमधुरा। वाशी+इव। वाशीति वाङ् नाम। वाणी इव सहायक इति शेषः। ईदृग् इन्द्रः। मिमीते+इत्=भक्तजनाय कल्याणनिर्माणं करोत्येव ॥१२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रस्य) स्नेहकर्तुः (सनिः) इष्टदाता (इन्द्रः) परमात्मा (सोमस्य, पीतये) सौम्यगुणानुभवाय (पप्रथे) प्रख्यातः (सुन्वते) यज्ञं कुर्वते (प्राची, वाशीव) प्राचीना वेदवागिव (मिमीते, इत्) सा वाक् तं प्रकाशयत्येव ॥१२॥